Haryana: इस बार के चुनावी संग्राम में बीजेपी-कांग्रेस में टक्कर, दोनों पार्टियों की उम्मीदें और अपने-अपने दांव
इस बार का चुनावी दंगल कुछ अलग होने जा रहा है। कई चुनावों के बाद दो प्रमुख दलों भाजपा व कांग्रेस में सीधी भिड़ंत है। हरियाणा में अहम भूमिका निभाते रहे क्षेत्रीय दल इस बार हाशिये पर हैं। 2014 के चुनाव में इंडियन नेशनल लोकदल ने कांग्रेस को भी पीछे धकेल विपक्ष का दर्जा हासिल कर लिया था। 2019 के चुनाव में जननायक जनता पार्टी ने बेशक दस सीटें हासिल कीं लेकिन सरकार में भाजपा के साथ भागीदार बनकर अपनी अहमियत दिखाई। मैदान में तो इनेलो व जजपा के साथ-साथ बसपा और आम आदमी पार्टी भी हैं, लेकिन उन्हें बहुत जोर आजमाइश करने की जरूरत होगी ताकि मुकाबले में आ सकें।
ओलंपिक में शानदार प्रदर्शन के बाद हरियाणा में अब सियासी दंगल का नगाड़ा बज गया है। तीन माह पहले हुए लोकसभा चुनाव के बाद से ही राज्य में विधानसभा चुनाव का माहौल बनने लगा था और सभी दल तभी से इसके लिए तैयार हो गए थे। कांग्रेस ने सत्ता में वापसी की उम्मीद और भाजपा ने हैट्रिक का रिकॉर्ड बनाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना शुरू कर दिया था। चूंकि तीन नवंबर को सरकार का कार्यकाल पूरा होना है इसलिए सभी का अंदाजा यही था कि चुनाव की घोषणा सितंबर के पहले सप्ताह के आसपास हो सकती है। करीब 20 दिन पहले तारीख का एलान होने से कहीं न कहीं सभी दलों की रणनीति थोड़ी गड़बड़ाई है
राज्य में केवल एक बार कांग्रेस की सरकार रिपीट हुई है और दूसरी बार भाजपा की। गुटबाजी का शिकार कांग्रेस की उम्मीद इसी पर टिकी है कि मतदाता बदलाव चाहेगा। कांग्रेस की दिक्कत यह है कि उसका संगठन ही तैयार नहीं हो सका है। जिला व ब्लॉक स्तर पर कार्यकर्ता संगठित होने के बजाय अलग-अलग गुटों में बंटे हुए हैं। कुमारी सैलजा अलग रैलियां व कार्यक्रम करती आ रही हैं, जबकि भूपेंद्र हुड्डा व दीपेंद्र हुड्डा अलग। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इससे भी कांग्रेस को फायदा हो सकता है क्योंकि कांग्रेस ने किसी को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित नहीं किया है।
सैलजा व हुड्डा के हक में क्रमशः अनुसूचित जाति व जाट वोट बैंक के सहारे कांग्रेस सत्ता में वापसी की सीढ़ियां चढ़ना चाह रही है। वहीं, भाजपा ने ओबीसी व शहरी वोट बैंक पर ध्यान केंद्रित किया है। बसपा ने इनेलो के साथ गठबंधन कर दलित व जाट वोट बैंक पर नजरें लगाई हैं। यह गठबंधन कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकता है। कांग्रेस जहां बेरोजगारी, कानून-व्यवस्था, स्कूलों व स्वास्थ्य संस्थानों की व्यवस्था में खामियों को भुनाने की कोशिश में वहीं भाजपा को नौकरियों में पर्ची-खर्ची की प्रथा बंद कर पारदर्शी व्यवस्था लाने का डंका पीट रही है। किसानों को सभी फसलों के समर्थन मूल्य की घोषणा जैसे मुद्दे भी भाजपा को झोली में हैं। सियासी दंगल में 45 दिन दांव-पेच के हैं और सभी पूरे दमखम के साथ ताल ठोकने को तैयार हैं। हरियाणवी मतदाता की खासियत है कि वह मुखर होता है। इस बार भी है
दस साल से सत्ता पर काबिज भाजपा ने लोकसभा चुनाव से पहले न केवल जजपा से नाता तोड़ा बल्कि एंटी इंकम्बेंसी को भांपते हुए मनोहर लाल को मुख्यमंत्री पद से हटाकर, ओबीसी वर्ग के नायब सिंह सैनी को कमान दी। लोकसभा चुनाव में हुए नुकसान को विधानसभा चुनाव में कम किया जा सके, इसके लिए भाजपा सरकार ने पूरी ताकत लगाई। 90 दिन का एजेंडा लेकर चले सैनी ने ताबड़तोड़ घोषणाएं कीं, लेकिन उन्हें करीब 75 दिन ही मिल पाए और फिर आचार संहिता लग गई। अग्निवीरों को सरकारी नौकरियों में दस फीसदी आरक्षण देने और विभिन्न वर्गों से संबंधित कई कदम उठाए। इतने समय सत्ता का विरोध कम करने के लिए कम रहा।